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Discover the Soul of Varanasi - Banaras Ghumo

Short Description: "Immerse yourself in the timeless charm of Varanasi, where spirituality meets culture. Explore the ancient alleys, witness the mesmerizing Ganga Aarti, and experience the essence of Banaras with us. Welcome to Banaras Ghumo, your gateway to the heart of Varanasi

Religious Place

Explore Varanasi's sacred sites, from the revered Kashi Vishwanath Temple to the peaceful Sarnath, and feel the city's spiritual energy

Tourist Place

Discover Varanasi's top attractions, from the iconic ghats along the Ganges to the bustling local markets, and experience the city's unique charm.

History of Varanasi

Uncover Varanasi's ancient past and its role in shaping India's cultural heritage, from its beginnings to its present-day significance.

Ganga Aarti

Experience the captivating Ganga Aarti, a mesmerizing ritual on the banks of the Ganges that combines music, incense, and devotion for a truly unforgettable evening.

Vibrant Tapestry of Varanasi's Culture

Immerse yourself in the kaleidoscope of Varanasi's culture, where tradition and modernity intertwine to create a captivating mosaic. From the age-old classical music and dance to the bustling silk weaving industry, Varanasi's culture is a celebration of art, spirituality, and everyday life. Join us as we delve into the heart of Varanasi's cultural heritage, where every street corner tells a story and every festival is a spectacle to behold

Traditional Arts and Crafts

Music and Performing Arts:

The Importance of Rishis, Sants, Mahatmas, Avadhootis, Banars, and Ajendras in Hindu History

Hindu religious history is filled with various spiritual and religious figures, but none hold more importance than the Rishis, Sants, Mahatmas, Avadhootis, Banars, and Ajendras. 

*  Rishis: Also known as Rishis or Rishis, these individuals are considered the founders of Hinduism. Some examples include Lord Rama, Tulsi Das, Raja Radhas, Mahatma Gautam Buddha, and Ahilyabai Holkar.

* Sants, Mahatmas, and Avadhootis: Sants are spiritual seekers who have achieved self-realization. They include Mahatmas, who are enlightened souls, and Avadhootis, who have completely detached themselves from the material world.

* Banars: Banars, or saints, are considered protectors of dharma and upholders of societal norms. They are believed to possess extraordinary spiritual powers and are revered by people of all backgrounds.

* Ajendras: Ajendras are considered the royal patron of warriors, which allows them to practice warrior ethics. The warriors include Rishis, who are regarded as protectors of dharma and upholders of societal norms.

The Sacred Heart of India

The architectural splendor of Varanasi showcases its rich cultural heritage.

मुक्ति और मोक्ष का परिक्रमा पथ है पंचक्रोशी

ऐसी मान्यता है कि काशी क्षेत्र में देहान्त होने पर जीव को मोक्ष की प्राप्ति होती हैं, परन्तु काशी क्षेत्र कौन सा है, काशी क्षेत्र की सीमा निर्धारित करने के लिए पुराकाल में पंचक्रोशी मार्ग का निर्माण किया गया। काशी खंड के अनुसार ब्रह्मा और विष्णु युद्ध के मध्य पैदा हुए दिव्या ज्योतिपुंज की उर्जा पांच कोस (11 मील) तक फ़ैल गयी थी ! दिव्या ऊर्जा से संचित और वरुणा और असि के मध्य स्थित क्षेत्र को पांचकोसी कहा गया है।

काशी की परिक्रमा करने से सम्पूर्ण पृथ्वी की प्रदक्षिणा का पुण्यफल प्राप्त होता है। भक्त सब पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाता है। तीन पंचक्रोशी परिक्रमा करने वाले के जन्म- जन्मान्तर के सभी पाप नष्ट होजाते हैं।

काशीवासियों को कम से कम वर्ष में एक बार पंचकोसी परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए क्योंकि अन्य स्थानों पर किए गए पाप तो काशी की तीर्थयात्रा से उत्पन्न पुण्याग्नि में भस्म हो जाते हैं, परन्तु काशी में हुए पाप का – नाश कवल पंचकोसी प्रदक्षिणा से ही संभव है।

पंचक्रोशी यात्रा रोचक तथ्य

पद्म पुराण के अनुसार इस यात्रा के अंतर्गत तीर्थयात्री पांच कोस के घेरे में यात्रा करते है ! यात्रा मार्ग शंख की आकृति के समान है ! इस यात्रा के दौरान तीर्थयात्री 108 तीर्थ स्थलों व मंदिरो में जाते है ! यहाँ 56 शिवलिंगो, 11 विनायको, 10 शिव गणो, 10 देवियो, 04 विष्णुओं, 02 भैरवो तथा 15 अन्य तीथी का दर्शन पूजन होता है।

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हाथ में डंडा, मुंह में पान
बनारसी गुरु की यही पहचान

भारतेन्दु हरिश्चंद्र जी द्वारा उल्लेखित ये पंक्तिया किसी को भी ये बताने के लिए पर्याप्त है की पान की अहमियत एक बनारसी के लिए कितनी है। ये कहावत यु ही नहीं बनी है। पुराने ज़माने में बनारसी जब घर से बहार कही भी जाता था तो ये चिंता साथ में रहती थी की उस जगह मिज़ाज़ का पान मिलेगा या नहीं! इस लिए घर से निकलते ही अपने पनेदी से दिन, समय और मौसम के हिसाब से पन्ना की थैली बनवाकर दिन की शुरूवात होती थी। धीरे धीरे ये थैली और पान बनारस की पहचान हो गए !

रोचक तथ्य 01 -

आज़ादी में भी है बनारसी पान का योगदान ग़दर के समय आजादी के आंदोलन को जब बनारस में ही रहकर तमाम क्रांतिकारी और आंदोलनकारी आगे बढ़ा रहे थे. उनके लिए एक दुसरे को आंदोलन से जुडी महत्त्वपूर्ण सूचना एक दुसरे से सांझा करना बहुत मुश्किल होता जा रहा था। समय से सन्देश न पहुंचने के कारण बहुत आंदोलन कि धार पर भी असर पद रहा था ! उस वक्त इस बनारस के पान ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. बनारस के पान के ठोंगे में अखबारों का इस्तेमाल किया जाने लगा. चौगड़े में सुर्ती- सुपारी और चूने की पुड़िया के साथ चिट्ठियों की एक पुड़िया अलग से रखी जाने लगी, अंग्रेज सरकार का शक पान के ठोंगे पर नहीं जाता था और इस तरह कई वर्षो तक पान का बीड़ा पोस्टकार्ड का काम करता रहा !.

रोचक तथ्य 02 -

पान कि उत्पति को लेकर जीत चाहे जिसकी हो अंतर्राष्ट्रीय न्यालय में श्री उत्पति चाहे जहा हो लंका, बांग्लादेश और भारत लेकिन पान को सद्गति के बीच मुकदमा चल रहा है! बनारस में आकर प्राप्त होती

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बनारस के पानी से बुझी | जगन्नाथ मंदिर की आग

बनारस के राजा बीर सिंह कबीर दास जी के अनन्य भक्त थे, जब कबीर दास जी राजदरबार जाते तो राजा अपनी जगह छोड़ कर उनको सिंघासन पर बैठाते ! एक बार कबीर दास जी ने राजा कि परीक्षा लेनी चाही ! कबीर दास जी दो बोतल में रंगीन पानी जो देखने में बिलकुल मदिरा दिख रही थी, हाथ में लेकर राज दरबार पहुंचे।

इस बार राजा ने उनके लिए सिंघासन नहीं छोड़ा। कबीर दास जी समझ गए राजा भी अपने गुरु को नहीं जानता

! उन्होंने राज दरबार में बोतल से पानी गिरना शुरू किया, पानी लगातार गिरता रहा और बोतल खाली नहीं हो रही थी तो राजा ने पुछा गुरु जी ये क्या है ! तब कबीर दास जी के साथ खड़े शिष्य ने कहा कि जगन्नाथ मंदिर में आग लगी है और संत साहेब उसे बुझा रहे! कुछ दिन बाद राजा ने अपने दूत को इस घटना कि सत्यता के लिए भेजा तो पाया कि यह घटना सौ प्रतिशत सच थी !

बनारस की गलियों में सबसे मशहूर है कचौड़ी गली

बनारस की मोक्ष स्थली मणिकर्णिका को जोड़ती हुई बनारस की प्राचीन गलियों में से एक है " कचौड़ी गली नाम से मत सोचिये की कचौरी का जन्म इस गली में हुआ था ! प्राचानी समय में राजस्थान के मारवाड़ से व्यापारिक रास्ता गुजरा करता था. यहां गर्मी की वजह से ठंडे मसाले का चलन का था, जिसमें धनिया, सौंफ और हल्दी का इस्तेमाल किया जाता था. इन्हीं के इस्तेमाल से कचौड़ी की भी शुरुआत हुई, बनारस भी प्रमुख व्यापारिक केंद्र था और मारवाड़ी यहाँ भी व्यापर करने आये और साथ में ले आये कचौरी !

कचौड़ी गली का नाम कैसे पड़ा महाशमशान मणिकर्णिका में दूर दूर से लोग अपने रिश्तेदारों, नातेदारों, सेज सम्बन्धियों का अंतिम संस्कार करने आते थे, पूरे विश्व में सूर्यास्त के पश्चात शवदाह प्रतिबंधित है वही दूसरी तरफ मणिकर्णिका घाट में रात्रि में भी डाह की परंपरा है ! रात्रि में डाह के पश्चात यात्रियों के लिए जल पान की व्यवस्था हेतु कचौड़ी और सब्जी (बिना लहसुन और प्याज ) की दुकाने खुलने लगी। धीरे धीरे इन दुकानों की अधिकता के कारण इस गली को कचौड़ी गली के नाम से पुकारा जाना लगा ! चौक क्षेत्र से शुरू होकर मेरे घाट तक जाने वाली कचौड़ी गली में दुकाने प्रातः काल से लेकर पूरी रात तक खुली रहती है

विश्वनाथ गली

बनारस के नाथ श्री विश्वनाथ का मंदिर इसी गली में पड़ता है। ज्ञानवापी चौक क्षेत्र से शुरू होकर ये गली दशवाशमेंघ घाट तक जाती है ! इस गली में कपडे श्रृंगार, लकड़ी के आकर्षक खिलने के साथ साथ हिन्दू धर्म प्रायः सभी देवताओ के मंदिर मिल जायेगे ! बहार से आने वाले लोगो के लिए ये खरीददारी का प्रमुख स्थान है !

मोक्ष की नगरी में देवताओं का महापर्व, जानिए काशी की देव दीपावली का पौराणिक महत्व

देव दीपावली तीर्थयात्रियों द्वारा गंगा के संबंध में दीवाली के पन्द्रहवें दिन को वाराणसी में हर साल मनाई जाती है। चंद्रमा को पूरा ध्यान में रखते हुए यह कार्तिक पूर्णिमा पर कार्तिक के महीने में आयोजित की जाती है। यह महान तुरही और पड़ा साथ लोगों द्वारा मनाई जाती है। हिंदू धर्म में देव दीपावली देवताओं इस भव्य उदाहरण पर पृथ्वी पर उतरना के विश्वास में मनाई जाती है। देव दीपावली मनाने का एक और मिथक है कि त्रिपुरासुर दानव इस दिन देवताओं द्वारा मारा गया था, तो यह देव दीपावली के रूप में नामित किया गया और कार्तिक पूर्णिमा पर देवताओं की विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है।

काशी की गंगा आरती पूरे विश्व में है प्रसिद्ध, विदेशी पर्यटक भी होते हैं शामिल

गंगा आरती (Ganga Aarti) जिसके विषय में आपने कई किस्से, कई कहानियां सुनी होगी और हो सकता है आप खुद भी गंगा आरती के साक्षी (Witness) रहे होंगे. गंगा के तट पर शाम होते होते माहौल एक दम भक्तिमय होने लगता है. पुजारियों की भीड़ में दीपक की ज्वाला, जो मानो आसमान को छूने की कोशिश करती है. शंखनाद डमरू की आवाज और मां गंगा के जयकारे आरती में शामिल भक्तों के रौंगटे खड़े कर देते हैं. गंगा घाट (Ganga Ghat) पर गंगा आरती के समय मेला सा लग जाता है. ऐसे ही तो गंगा आरती विश्व प्रसिद्ध (World Wide) नहीं हो गई. यही सब महत्वपूर्ण कारण है जिनसे गंगा आरती की ख्याति पूरी दुनिया में है और तमाम जगह से भक्त इसकी एक झलक पाने के लिए आते हैं.

पवित्र गंगा नदी की एक झलक पाने के लिए लोग बहुत दूर दूर से आते हैं. इसके साथ वो गंगा आरती में भी शामिल होते हैं. आज कल हरिद्वार की तर्ज पर गंगा आरती का आयोजन ऋषिकेश, वाराणसी, प्रयाग और चित्रकूट में भी होने लगी है. साल 1991 में गंगा आरती वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर शुरू की गई.

दुनिया भर के सबसे खूबसूरत धार्मिक समारोह में से गंगा आरती भी एक माना जाता है. यह आरती सूर्यास्त के बाद होती है. गंगा आरती की शुरुआत शंखनाद से की जाती है. जिसे लेकर मान्यता है कि इससे नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो जाती है. पुजारी अपने हाथों में बड़े बड़े दीये लेकर मां गंगा की आरती करते हैं. मां गंगा के जयकारे, ढोल नगाड़े की गूंज और आरती की मधुर ध्वनि अपने आप अपलक निहारने पर मजबूर कर देती है.

संत कबीर साहेब के जन्म और जन्मस्थान एक रहस्य

"हम काशी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये '

कबीर साहेब की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसी ने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कतिपय कबीर पन्थियों की

मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नाम देवागना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् 1455 ज्येष्ठ शुक्ल 15 को कबीर के रूप में प्रकट हुए थोइन सब को आधार मान कर एक बात तो सुनिश्चित सी जान पड़ती हे की कबीर दास जी का जन्म काशी में हुआ था।

लेकिन संत कबीर ने खुद ही एक दूसरी अवधारणा को जन्म दिया था जब उन्होंने लिखा कि "पहिले दरसन मगहर पायो, पुनि कासी बसे आई" यानी काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा ! आदमी जहा पैदा होता है। और आँखे खोलता है पहला दरसन उसी स्थान का होता है इस लिए इस दोहे से संत कबीर अपने जन्म स्थान को लेकर आम मानस के ह्रदय में स्वयं शंका को जन्म देते है !

काशी की लीला

औघड़ दानी के शहर में लीला, थोड़ा सा आश्चर्य चकित करता है। प्रभुराम ने अपनी लीला अयोध्या और आसपास से लंका तक की तो लीला धर श्री कृष्ण ने

मथुरा, वृन्दावन और द्वारिका में परन्तु उनके पश्चात उनकी लीला का मंचन सर्वाधिक सुन्दर और भक्ति भाव से सिर्फ काशी में होता है। काशी के वासी 05 • मिनट की छोटी से नयनाभिराम झांकी के लिए लाखो की संख्या में उपस्थित होते है तो 18 दिन और 31 दिन की राम लीला में भी अपनी नित्य उपस्थिति अंकित करते है। काशी की प्रमुख लीलाओ में शामिल है राम नगर, अस्सी, नाटी इमली की रामलीला, चेतगंज की नक्क कटैया, तुलसी घाट की कृष्ण लीला |