वाराणसी शहर से करीब 15 किलोमीटर दूर दक्षिण में जिस स्थान से गंगा उत्तरवाहिनी होकर काशी में प्रवेश करती हैं वहां है शूलटंकेश्वर का मंदिर।
शूलटंकेश्वर महादेव भक्तों के समस्त शूल को हर लेते हैं। मान्यता है कि जिस तरह से मां गंगा के शूल नष्ट हुए उसी तरह शूलटंकेश्वर का दर्शन करने वालों के सभी दुख दूर हो जाते हैं। काशी के दक्षिण में बसे मंदिर के घाटों से टकराकर गंगा काशी में उत्तरवाहिनी होकर प्रवेश करती हैं।
वाराणसी शहर से 15 किलोमीटर दूर माधवपुर गांव में स्थित शूलटंकेश्वर महादेव विराजते हैं। इस मंदिर में हनुमान जी, मां पार्वती, भगवान गणेश, कार्तिकेय के साथ नंदी विराजमान हैं। मंदिर के पुजारी ने बताया कि माधव ऋषि ने गंगा अवतरण से पहले शिव की आराधना के लिए ही यहां पर शिवलिंग की स्थापना की थी।
गंगा तट पर तपस्या करने वाले ऋषि-मुनियों ने इस शिवलिंग का नाम शूलटंकेश्वर रखा। इसके पीछे धारणा यह थी कि जिस प्रकार यहां गंगा का कष्ट दूर हुआ उसी प्रकार अन्य भक्तों का कष्ट दूर हो। यही वजह है कि पूरे वर्ष तो यहां भक्त दर्शन को आते ही हैं लेकिन अपने कष्टों से मुक्ति के लिए सावन में भक्तों की भीड़ ज्यादा होती है।
काशी विश्वनाथ मंदिर न्यास के सदस्य पं. दीपक मालवीय ने बताया कि पुराणों के प्रसंग के अनुसार गंगा अवतरण के बाद जब वह काशी में अपने रौद्र रूप में प्रवेश करने लगीं तो भगवान शिव ने काशी के दक्षिण में ही त्रिशूल फेंककर गंगा को रोक दिया। भगवान शिव के त्रिशूल से मां गंगा को पीड़ा होने लगी।
उन्होंने भगवान से क्षमा याचना की। भगवान शिव ने गंगा से यह वचन लिया कि वह काशी को स्पर्श करते हुए प्रवाहित होंगी। साथ ही काशी में गंगा स्नान करने वाले किसी भी भक्त को कोई जलीय जीव हानि नहीं पहुंचाएगा। गंगा ने जब दोनों वचन स्वीकार कर लिए तब शिव ने अपना त्रिशूल वापस लिया।